संस्मरण क्र.35/आर एस वर्मा/(1)- Part (I) , (II) Part (III) & Part (IV)
1. दादा से मुलाक़ात: दादा से मेरी मुलाक़ात जुलाई, 1973 कब और कैसे हुई, यह बताने के पहले मैं संक्षिप्त में ये बताना चाहूँगा कि वे मेरी कौन सी परिस्थितियाँ थी, जिनके कारण मेरी मुलाक़ात दादा se हुई थी | मेरी तब शादी हो चुकी थी और दो बच्चे भी थे | स्टेट बैंक ऑफ इंदौर में नौकरी लग चुकी थी | दादा भी इसी बैंक में कार्यरत थे |
मुझमें आत्मविश्वास की बड़ी कमी थी, बहुत जल्दी जीवन की समस्याओं से घबरा जाता था | कुछ समझ ही नहीं आता था कि क्या करूँ | मैं स्वभाव से सीधा था और साथ ही थोड़ा डरपोक किस्म का भी | मुझे हमेशा ऐसा लगता था की दुनिया के लोग मेरे ही पीछे पड़े हुए हैं और मेरा उपयोग करना चाहते हैं | मेरा दूसरों मे ट्रस्ट लेवल भी कम था | कई बार जीवन लीला समाप्त कर लेने का विचार भी मन में आ जाता था |
मैं इधर-उधर बहुत भटका कि कोई बता दे कि जीवन को वास्तव में कैसे जिया जाए | धार्मिक प्रवचनों में भी जाता कि कहीं कोई उपयोगी सूत्र हाथ लग जाए | इंदौर नगर निगम मुख्यलाय के पास एक चर्च था, मैं वहाँ भी गया | मैं एक बार व्हाइट चर्च (शिवाजी वाटिका के पास) में वहाँ के फादर से भी मिला, पर कुछ हासिल नहीं हुआ | कुछ दिन ओंकारेश्वर भी घूमकर/रहकर आया कि कहीं कोई जीवन जीने का सही रास्ता बताने वाला मिल जाए | मैं और मेरी पत्नी उस समय के शहर के प्रसिद्ध मनोविज्ञान के डॉक्टर घोड़पकर से भी मिले, कि वह मेरी समस्या का कोई हल बता सके, पर वहाँ भी कुछ दवाओं के अलावा कुछ न मिला |
इसी समय मेरी मुलाक़ात जुलाई 1973 में श्री आर एस विजयवर्गीय (वल्लभ) से बैंक के ट्रेनिंग सेंटर में हुई, जहां मेरा बड़नगर से ट्रान्सफर हुआ था | वे वहाँ ट्रेनिंग पर आए हुए थे | उसी दौरान हम दोनों का बैंक की सी. ए. आई. आई. बी. (पार्ट-I) की परीक्षा का रिज़ल्ट आया और हम दोनों परीक्षा में पास हो गए थे | मैं परदेशीपुरा में रहता था और वे पास ही नंदानगर में | हमारी दोस्ती हुई और हम दोनों ने अगली परीक्षा (Part-II) की तैयारी साथ मिलकर करने का निश्चय किया | धीरे-धीरे दोस्ती घनिष्ठता में बदल गई | हम दोनों आपस में अपनी व्यक्तिगत समस्याओं पर भी अक्सर चर्चा करते रहते थे | वह मुझे बहुत समझाते भी थे | मैं उन्हें अपने से ज्यादा परिपक्व, दुनियादारी में व्यवहारिक और समझदार भी मानता था | मेरी परेशानियों को देखकर श्री विजयवर्गीय ने मेरी मुलाक़ात दिलीप दादा से जुलाई,1973 में करवाई |
2. दादा ने मुझे कैसे उबारा: दादा ने मुझसे एकसरसाईज़ के बारे में कोई भी बात नहीं की | बस इतना कहा कि मुझसे मिलते रहा करो | दादा यह अच्छी तरह से समझ गए थे कि मुझमें आत्मविश्वास और साहस की बहुत कमी है, पर मुझसे इस बारे में उन्होंने मुझसे कहा कुछ भी नहीं |
दादा मुझे रविवार या शनिवार को रेसिडेंसी बुलवाते और रेसिडेंसी की मुख्य बिल्डिंग के सामने बने गार्डेन की सीढ़ियों पर बैठकर घंटों मुझसे बात करते थे और अपने स्वयं के जीवन के बारे में भी मुझे बताते जाते | कभी दादा अपने साथ डेली कॉलेज तक वाकिंग पर साथ ले जाते और मेरे साथ बातें भी करते जाते | ये सिलसिला दिसंबर, 1975 तक चलता रहा |”
(i) मेरी संक्षिप्त कहानी: सबसे पहले दादा ने मुझसे मेरे और परिवार के बारे पूरी जानकारी ली, जो मैं संक्षिप्त में आपको भी केवल इसलिए बताना चाहूँगा कि आप यह अंदाज लगा सके कि दादा किन विकट परिस्थितियों में से मुझे खींचकर बाहर लाये | यह शायद और किसी के बस का था भी नहीं |
“मेरे परिवार या कुल में कोई भी पढ़ा-लिखा न था, कुछ को केवल अक्षर ज्ञान जरूर था | परदेशीपुरा (मिल एरिया), इंदौर, जहां मेरा जन्म हुआ था, में हमारी टेलरिंग की दुकान थी | दादी बड़े उग्र स्वभाव की थीं, पिताजी तो उनसे बहुत डरते थे और अक्सर दादी से विवाद होने पर महीनों-महीनो तक घर छोड़ कर चले जाते थे | इसीलिए मैं मानता था कि घर में मर्द के नाम पर केवल एक दादी ही थी | घर में आपस में झगड़े और एक दूसरे की मार-पिटाई करना आम बात थी | इसी कारण मुझे शादी करने में भी डर लगता था |
मेरी माँ और एक छोटी बहन मानसिक रूप से मंद बुद्धि (mentally retarded) थे | मेरी दादी बड़ी परिश्रमी थीं और उन्होंने ही हम भाई-बहनों पाला-पोषा और पूरे परिवार की देखभाल भी की |
दादी ने स्वदेशी मिल के गेट के पास एक गुमटी में चाय-नाश्ते की केंटीन भी लगाई | मैं और दादी उस गुमटी में ही रहते और केंटीन भी चलाते | हुकमचंद मिल में एक ठेकेदार के यहाँ स्कूल/कॉलेज के बाद काम भी करता था | शाम के समय इन्कम-टैक्स प्रेक्टिश्नर आई. पी. सचदेवा & कंपनी में पार्ट टाइम टाइपिस्ट की नौकरी भी की |
दादी के मन में शुरू से ही मुझे पढ़ाने की भी बहुत तमन्ना थी | मिडिल स्कूल तक की पढ़ाई मिल एरिया के सरकारी स्कूलों में हुई | इसके बाद नूतन हायर सेकंडरी स्कूल, चिमनबाग, इंदौर में कॉमर्स में प्रवेश लिया | दादा ने भी इस स्कूल में कुछ वर्षों तक एक शिक्षक के रूप में काम किया है | परंतु कुछ समय बाद दादी ने मना कर दिया की अब आगे नहीं पढ़ा सकती | हालांकि उस समय फीस बहुत नॉमीनल ही लगती थी, शायद 2 या 5 रुपये महिना | मैंने स्कूल जाना बंद कर दिया |
अपडेट दिनांक 20.10.21 (Part-II)
जब मेरे स्टेनो-ग्राफी विषय के टीचर स्व. आर. एस. निकम साहब को स्कूल न आने का कारण पता लगा, तो उन्होने मुझे मेरे एक मित्र के माध्यम से बुलवाया औरे मेरी फ्री-शिप करवा दी | स्कूल जाना वापिस चालू हुआ | | निकम सर मुझे अपने बेटे जैसा ही मानते थे और उन्होंने मेरे साथ बहुत मेहनत की और मुझसे भी कारवाई | उसी का परिणाम था कि हायर सेकंडरी की परीक्षा में कॉमर्स ग्रुप में मुझे पूरे मध्य प्रदेश में सर्वाधिक नंबर (Highest Marks) प्राप्त हुए और सिल्वर मेडल भी मिला |
शादी 1968 में बिना एक दूसरे को देखे ही कर दी गई, जब मैं बी.कॉम 2nd ईयर में पढ़ता था | स्टेट बैंक ऑफ इंदौर, बड़नगर शाखा में 27.12.1969 को क्लर्क के रूप में नौकरी लगी | बी कॉम फ़ाइनल भी मैंने बैंक में लगने के बाद ही किया | 1970 मे मेरी सबसे बड़ी बेटी अनिता का जन्म हुआ, 1973 में पुत्र मनीष का और 1977 में सबसे छोटी बेटी भावना का जन्म हुआ था | परिवार में हमारे अलावा दादा-दादी, पिताजी-माताजी, 1 भाई और 2 बहने थी (कुल बारह सदस्य थे |)”
ii) दादा का सानिध्य:जुलाई,1973 से दिसंबर 1975 तक मुझे दादा का सानिध्य मिलता रहा | दादा ने मन-ही-मन मुझे विकट परिस्थितियों से उबारने का निशचय कर लिया था | दादा ने एक तरह से मुझे अपना छोटा भाई ही मान लिया था | इस दौरान दादा ने एक्सरसाईज़ करने या क्लब जॉइन करने के लिए नहीं कहा, क्योंकि उनकी प्राथमिकता उस समय कुछ और थी |
दादा मुझे स्वामी विवेकानंद के बारे में बताते, रामकृष्ण मिशन की छोटी-छोटी पुस्तकें पढ़ने को देते | पर फिर भी उनका ज्यादा से ज्याद फोकस मुझसे चर्चा करने पर ही रहता था |
उस समय दादा किसी के घर, शादी-विवाह या अन्य किसी भी तरह के कार्यक्रमों में नहीं जाते थे | कुछ खाना-पीना तो दूर, किसी के यहाँ पानी भी नहीं पीते थे | परंतु एक दिन वे बिना कुछ बताए एक दिन स्वयं, मेरे घर आ गए, शायद मेरी स्थिति का जायजा लेने के लिए | करीब आधा घंटा रुके और परिवार में सबसे मिले |
मेरे बेटे मनीष का जन्म 6, जून,1973 में हुआ था और शायद जुलाई के अंत हमने एक कार्यक्रम रखा था | मैंने दादा को बड़ा सकुचाते हुए कहा कि दादा आप भी आयें | उस दिन बारिश भी बहुत हुई थी, पर दादा उस दिन घर आए और भोजन भी किया |
मुझे अब अपने मन में यह पक्का विश्वास हो गया था कि अब दादा ही मेरा उद्धार कर सकते हैं | धीरे-धीरे मेरा आत्म-विश्वास और साहस लौटने लगा | सी. ए. आई. आई. बी. परीक्षाएँ पास कर लेने से मुझे 1975 में प्रमोशन का अवसर मिलने वाला था | मैं ऑफिसर बनने का साहस नहीं जुटा पा रहा था | दादा ने मुझे प्रेरित किया कि मैं ऑफिसर अवश्य बनूँ | दादा यह जानते थे कि मेरे परिवार और बच्चों के बेहतर भविष्य के लिए मेरी आय का बढ़ना बहुत जरूरी था | दादा की प्रेरणा और उत्साहवर्धन से और उनके आशीर्वाद से मेरा दिसंबर 1975 में प्रमोशन हो गया | दादा बड़े खुश हुए |
3.एक्सर साईज़ से मेरा जुड़ना: 1975 में मेरा ऑफिसर के रूप में प्रमोशन हुआ और 1976 में देवास ट्रान्सफर हो गया | मैं अपना परिवार और छोटे भाई को लेकर देवास चला गया, शेष परिवार इंदौर ही रहा | इसी बीच पिताजी को लंग कैंसर हुआ और उन्हें एम. वाय. एच. हॉस्पिटल में भर्ती किया गया | मैं दिन में बैंक में कार्य करता, शाम को इंदौर आता और रात को हॉस्पिटल में सोता और सुबह फिर देवास के लिए ट्रेन से रवाना हो जाता | दो जगह परिवार, फिर उस समय खुजली (scabies) की बीमारी फैली हुई थी, सो घर के लोग इससे भी परेशान, मैं कहीं पर भी ध्यान नहीं दे पा रहा था | नई परिस्थिति से मैं बुरी तरह घबरा गया | बैंक ने मेरे निवेदन पर फरवरी, 76 में वापस इंदौर ट्रान्सफर कर दिया |
अपडेट दिनांक 21.10.21 (Part-III)
सन 1976-1981
3.एक्सर साईज़ से मेरा जुड़ना : 1975 में मेरा ऑफिसर के रूप में प्रमोशन हुआ और 1976 में देवास ट्रान्सफर हो गया | मैं अपना परिवार और छोटे भाई को लेकर देवास चला गया, शेष परिवार इंदौर ही रहा | इसी बीच पिताजी को लंग कैंसर हुआ और उन्हें एम. वाय. एच. हॉस्पिटल में भर्ती किया गया | मैं दिन में बैंक में कार्य करता, शाम को इंदौर आता और रात को हॉस्पिटल में सोता और सुबह फिर देवास के लिए ट्रेन से रवाना हो जाता | दो जगह परिवार, फिर उस समय खुजली (scabies) की बीमारी फैली हुई थी, सो घर के लोग इससे भी परेशान, मैं कहीं पर भी ध्यान नहीं दे पा रहा था | नई परिस्थिति से मैं बुरी तरह घबरा गया | बैंक ने मेरे निवेदन पर फरवरी, 76 में वापस इंदौर ट्रान्सफर कर दिया |
श्री विजयवर्गीय (वल्लभ) ने फिर मुझे सलाह दी कि अब तो दादा से मिल ही लो और क्लब भी जॉइन कर लो, एक्सरसाईज़ करोगे, तो ध्यान समस्याओं से हटेगा | मुझे भी सुझाव ठीक लगा, सो मैं दादा के पास पहुँच गया | दादा ने कह दिया आजशाम से ही आ जाओ |
और इस तरह मेरा दादा के साथ क्लब में एक्सरसाईज़ का सफर फरवरी 1976 से शुरू हुआ | दादा ने फरवरी से सितंबर तक अब्डोमन एक्सरसाईजेस दी ताकि पाचन (digestion) ठीक हो और मोशन भी ठीक रहे | अक्टोबर,76 से दादा ने इन्स्टृमेंटल एक्सरसाईजेस देना भी शुरू किया |
दादा पूरे वीक का एकसरसाईज़ का चार्ट देते और डाइट क्या लेना है यह भी बताते | शनिवार को मुझसे प्रोग्रेस रिपोर्ट लेते और एक्सरसाईज़ चार्ट में फेर बदल करते और डाइट में आवश्यक चेंज भी करते |
5. दादा ने आध्यात्म से जोड़ा: करीब-करीब 3 साल के बाद दादा ने मुझे रामकृष्ण मिशन द्वारा प्रकाशित दो पुस्तकें- The Gospel of Sri Ramkrishna और Sri Ramkrishna The Great Master पढ़ने के लिए सलाह दी | दादा इन दोनों किताबों को कई बार पढ़ चुके थे और उनके लिए ये गीता या बाईबिल की तरह थीं | दादा ने तो इन किताबों में दिए गए निर्देशों को अपने जीवन में आत्मसात कर लिया था | मुझे कई बार आश्चर्य होता था जब वे इन किताबों से पेज नंबर और पैराग्राफ नंबर के साथ दादा रिफ्रेन्स देते थे | उनकी 100 पेज रोज पढ़ने की जो आदत थी |
पहले तो इन पुस्तकों को पढ़ने में मन ही नहीं लगता, क्योंकि कुछ समझ में ही नहीं आता था | धीरे-धीरे आध्यात्मिक शब्दावली समझ में आने लगी, तब अर्थ भी थोड़ा-थोड़ा समझ में आने लगा |
मेरे स्वभाव और कमजोरियों को देखते हुए दादा अक्सर मुझे ‘The Gospel of Sri Ramkrishna’से यह कहानी सुनाते थे, जो इस प्रकार है :-
“A Devotee: “Sir, if a wicked man is about to do harm, or actually does so, should we keep quiet then?
Master (Sri Ramkrishna): “A man living in society should make a show of tamas (anger) to protect himself from evil-minded people. But he should not harm anybody in anticipation of harm likely to be done to him.”
“Listen to a story. Some cowherd boys used to tend their cows in a meadow where a terrible poisonous snake lived.
Everyone was on alert for fear of it. One day a Brahmachari (monk) was going along the meadow. The boys ran to him and said: ‘Revered sir, please do not go that way. A venomous snake lives over there.’
‘What of it, my good children?’ said the Bramachari. ‘I am not afraid of the snake. I know some mantras.’ So saying, he continued on his way along the meadow. But the cowherd boys, being afraid, did not accompany him.
In the meantime the snake moved swiftly toward him with upraised hood. As soon as it came near, he recited a mantra, and the snake lay at his feet like an earthworm. The Brahmchari said: ‘Look here. Why do you go about doing harm? Come, I will give you a holy word. By repeating it you will learn to love God. Ultimately you will realize Him and so get rid of your violent nature.’ Saying this, he taught the snake a holy word and initiated him into spiritual life.
The snake bowed before the teacher and said, ‘Revered sir, how shall I practice spiritual discipline?’ ‘Repeat sacred word’, said the teacher, and do not harm to anybody.’ As he was about to depart, the Brahmchari said, ‘I shall see you again.’
“Some days passed and the cowherd boys noticed that snake would not bite. They threw stones at it. Still it showed no anger; it behaved as if it were an earthworm.One day one of the boys came close to it, caught it by the tail, and, whirling it round and round, dashed it again and again on the ground and threw it away. The snake vomited blood and became unconscious. It was stunned. It could not move. So thinking it is dead, the boys went their way.
अपडेट दिनांक 22.10.21 (Part IV)
“Late at night the snake regained consciousness. Slowly and with great difficulty it dragged itself into its hole; its bones were broken and it could scarcely move. Many days passed. The snake became a mere skeleton covered with the skin. Now and then, at night, it would come out in search of food. For fear of the boys it would not leave its hole during the day-time. Since receiving the sacred word from the teacher, it had given up doing harm to others. It maintained its life on dirt, leaves or the fruit that dropped from the trees.
“About a year later the Brahmchari came that way again and asked after the snake. The cowherd boys told him that it was dead. But he could not believe them. He knew that the snake would not die before attaining the fruit of the holy word with which it had been initiated. He found his way to the place and, searching here and there, called it by the name he had given it. Hearing the teacher’s voice, it came out of its hole and bowed before him with great reverence.
“How are you?’ asked the Brahmachari. ‘I am well, sir, replied the snake. ‘But’, the teacher asked, ‘why are you so thin? The snake replied: ‘Revered sir, you ordered me not to harm anybody. So I have been living only on leaves and fruits. Perhaps that has made me thinner.’
“The snake had developed the quality of sattva; it could not be angry with anyone. It had totally forgotten that the cowherd boys had almost killed it.”
“The Brahmchari said: ‘It cannot be mere want of food that has reduced you to this state. There must be some other reason. Think a little.’ Then the snake remembered that the boys had dashed it against the ground. It said: Yes, revered sir, now I remember. The boys one day dashed me violently against the ground. They are ignorant, after all. They did not realize what a great change had come over my mind. How could they know I would not bite or harm anyone?’
The Brahmchari exclaimed: ‘What a shame! You are such a fool. You don’t know how to protect yourself. I asked you not to bite, but I didn’t forbid you to hiss. Why didn’t you scare them by hissing?
“So you must hiss at wicked people. You must frighten them lest they should do you harm. But never inject you venom into them. One must not injure others.
6. दादा की उपयोगी सीखें: (i) उक्त कहानी दादा ने एक बार नहीं कई बार बताई और अक्सर दूसरों को भी सुनाया करते थे | इस कहानी ने मेरे जीवन पर बहुत ज्यादा प्राभाव डाला और मुझे निडर बनने में बहुत सहायता की | इसके कारण मैं अपनी बात को निडरता से दूसरों के सामने रखने लगा और धीरे-धीरे स्पष्टवादिता (straightforwardness) कब मेरे स्वभाव का हिस्सा बन गई, मुझे पता ही नहीं चला | मेरे व्यवहारिक जीवन में इस कहानी की सीख बहुत काम आई और आज भी आ रही है | अधिकांश लोग मेरी स्पष्टवादिता को पसंद करने लगे, चाहे फिर वो मेरे दोस्त हो या दुश्मन |
(ii) दादा ने मुझे यह बात भी बहुत अच्छी तरह समझाई कि सीधा और सरल स्वभाव हमारी कमजोरी नहीं, बल्कि हमें ईश्वर प्रदत्त एक गुण या शक्ति है | बस केवल हमें अपने आप को दूसरों से कैसे सुरक्षित रखें, यह आना चाहिए |
(iii) दादा की एक और सीख जीवन में बहुत काम आई, वह है विवेक (wisdom) का उपयोग | वे कहते थे कि जब भी हम किसी विषय या समस्या पर निर्णय लें, तो हमें हमेशा अपने विवेक का उपयोग करना चाहिए | विवेक हमें यह बताता है कि क्या गलत है और क्या सही | वह यह भी कहते थे – All intelligent people are not wise, but all wise people are intelligent.
(iv) दादा ने यह भी सिखाया कि ईश्वर ने हमें बुद्धि और हृदय दोनों दिए हैं | जिन विषयों से भावुकता (emotions) जुड़ी हुई हों, वहाँ हमें अपने हृदय का उपयोग करना चाहिए और जहां सांसरिक विषयों पर व्यावहारिक निर्णय लेने हों, वहाँ अपनी बुद्धि का ही उपयोग करना चाहिए |
यदि हम ऐसा नहीं कर पाते हैं तो अक्सर हमसे ऐसे निर्णय हो जाते हैं, जिनके लिए हमें बाद में पछताना पड़ता है | जीवन में पारिवारिक और सांसारिक निर्णय लेने में इस सीख से बहुत मदद मिली और कई बार विकट परिस्थितियों में भी मैं सही निर्णय ले पाया |
7. दादा ने अब पाप होने से बचाया: हमारे दो बच्चे, एक बेटी और बेटा हो चुके थे, जब कि मेरे कई दोस्तों की तो तब तक शादी भी नहीं हुई थी | कई बार शर्म भी आती थी | जब 1976 में तीसरे के आने की आहट हुई तो हमें चिंता हुई, और हम कोई गलत निर्णय लेते, इससे पहले दादा से इस विषय में चर्चा हुई, तो दादा ने समझाया कि नहीं ऐसा करना ठीक नहीं होगा | और हमसे एक पाप होते-होते बचा |
नोट: (संस्मरण का Part - V) कल पोस्ट किया जाएगा )